चल कौन रहा
-निर्मल असो
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जिसने लोकतंत्र को
जीवंत नहीं देखा
किसी दिन
वी आई पी को
देख ले
मैंने वी आई पी
को टॉयलट की
उद्घाटन पट्टिका में
शेरवानी पहने देखा
फूलों से लदे गाल पर
कोई गंदी मक्खी तक
नहीं सवार थी
मैंने वी आई पी
को वहां वहां देखा, जहां
पहले इंसानियत मरी
फिर उसका काफ़िला आया
दंगों के बाद, भिखमंगों के पास
मैंने जब भी वी आई पी
को देखा
लोकतंत्र वहीं हाथ जोड़े
खड़ा था
लोकतंत्र की देह भाषा
चलती नहीं
ठहर कर पहरेदारी में
विकराल कर रही
हर बार अपने ही
आईने को
परेशान कर रही
यहां आईना सबूत नहीं
की शहंशाह कौन है
कौन है बादशाह
बादशाहत मौन है
मौन है जनता कि
हुक्मरान बोल रहा है
पहली बार देश को
जनता के कान में
तौल रहा है
लोकतंत्र अब
जनता की फ़रमाइश
में शृंगार की
तरजीह और उधार
की फ़ज़ीहत में
उपचार कर रहा है
भूख में रोटी जैसा
प्यास में बाढ़ जैसा
तरक्की में सत्ता जैसा
विपत्ति में विपक्ष जैसा
ख़ुद को ख़ुद पर
लुटा कर, ख़ुद से
ख़ुद ही पूछ रहा
आगे कहां तक
चलोगे या चलाए
जाओगे
इसी लोकतंत्र में
ट्रैफिक जाम था
शहर का
यातायात बदनाम था
लेकिन बीहड़ से जैसे
एक वी आई पी
उस नुक्कड़ को
पहचान रहा था
शिलान्यास उसी
चौराहे का
जिसके पास आकर
शहर थमा था
पहली बार सड़क पर
न लोग
न वाहन चीख रहे थे
सड़क पहली बार
सुन रही थी
देश के हालात
बदल रहे हैं
आश्चर्य आज
सड़क तक बिजली चल रही
पुलिस चल रही
प्रशासन दौड़ रहा
सड़क के सारे गड्ढे
निपट गए
शहर के काम निपट गए
किस अदा से
सड़क पर झाड़ू चला होगा
वी आई पी के सामने
फिर कहीं से आकर
लोकतंत्र ने सुना
देश बदल रहा है
पूरी तरह बदल जाएगा
शिलान्यास को पढ़ते
लोकतंत्र ने फिर
आशा से देश को निहारा
तभी पीछे मुड़ के
देखा तो
दोनों के पास चलने
को बस
एक दूसरे का सहारा था
देश सोच रहा है
लोकतंत्र चल रहा
और लोकतंत्र सोच रहा है
देश चल रहा !
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